देश में हुए उपचुनावों में कांग्रेस की शिकस्त अन्ना टीम का कोई चमत्कार नहीं अपितु एक स्वाभाविक परिणाम है. यह जनता का वो दर्द है जो कांग्रेस के केंद्र में होने के कारण देश की जनता को मिलता रहा है. बढती महगाई, बेरोजगारी और आम आदमी तक अपनी पहुँच न बना पाने कारण कांग्रेस को यह दिन देखना पड़ा. वास्तविकता यह है की कांग्रेस को केंद्र की सत्ता में होने का खामियाजा भुगतना पड़ा, अगर देश के उपचुनावों में कांग्रेस को मिली हार को हम अन्ना की बदौलत मिली हार समझ रहें है तो ये हम सबकी भूल है. हाँ ये सही है की जनलोकपाल पारित न होने से जनता में रोष है लेकिन यह रोष इस हद तक भी नहीं है की अन्ना जनलोकपाल के दम पर कांग्रेस को चुनाव हरा सकें. देश के जाने माने अर्थशात्रियो में से एक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में जब कांग्रेस सरकार ने केंद्र की सत्ता संभाली तो देश की जनता को उम्मीद थी की कांग्रेस देश में बढती महंगाई और बेरोजगारी को कम करने के लिए कुछ कारगर कदम उठाएगी खुद कांग्रेस ने भी अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी इन्ही मुद्दों को प्रमुख रूप से रखा था लेकिन सरकार बनने के बाद महंगाई बढ़ी ही और सरकार अंतर्राष्ट्रीय दबाव का बहाना बना कर घड़ियाली आंसू बहाती रही. यही वो सब कारण है जिनके बदौलत कांग्रेस को यह दिन देखना पड़ा. रही बात अन्ना और उनके जनलोकपल की तो यहाँ ये भी ध्यान देने योग्य है की किसी भी राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय दल के किसी नेता ने संसद में बहस के दौरान अन्ना के जनलोकपाल बिल को हुबहू स्वीकार करने की न तो वकालत की और न ही संसद के बाहर किसी राजनैतिक दल के नेता ने ये घोषणा की कि केंद्र कि सत्ता में आने के बाद उनका दल अन्ना के जनलोकपाल बिल को हुबहू पारित करेगा हाँ इतना जरुर हुआ कि अन्ना के जनलोकपाल बिल के बहाने राजनैतिक दलों ने राजनैतिक रोटियां सेकीं. यहाँ तक कि भ्रष्टाचार के खिलाफ रथ यात्रा निकलने वाले अडवाणी ने अभी तक कभी भी अन्ना के जनलोकपाल बिल को यथावत लागू करने की घोषणा नहीं की है हा इतना जरुर हुआ की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी फितरत की अनुरूप अन्ना के आन्दोलन की सफलता का अप्रत्यक्ष श्रेय लेने का प्रयास जरुर किया. जबकि वास्तविकता ये है की शुरुवाती दौर में खुद कांग्रेस सरकार ही इस आन्दोलन को बढ़ाना चाहती थी ताकि २जी स्पेक्ट्रम घोटाले सहित देश में हुए तमाम घोटालो पर से जनता का ध्यान बांटा जा सके. और अगर ऐसा न होता तो क्यों सरकार इस आन्दोलन को इतना बढ़ने देती की ये आन्दोलन उसके लिए गले की हड्डी बन जाये. क्या सरकार में बैठे लोग या नहीं जानते थे की कोई भी आन्दोलन अगर दस दिन या उससे ज्यादा चल जाए तो उसका प्रभाव स्वाभाविक रूप से जनता पर पड़ने लगता है ऐसा लगता है की सरकार की खुद यही मंशा थी की ये आन्दोलन बढे और इसके पीछे तीन कारण थे (१) जिस समय ये आन्दोलन शुरू होवा उस कांग्रेस शासित केंद्र सरकार के मंत्रियो द्वारा किया गया घोटाला २ जी स्पेक्ट्रम मीडिया के माध्यम से जनता में छाया हुआ था और सरकार के एक नहीं दो नहीं बल्कि कई मंत्री इस घोटाले में फस रहे थे, (२) अगर सरकार नहीं चाहती थी की ये आन्दोलन बढे तो फिर उसने आन्दोलन की शुरुवात के ५ से १० दिनों में आन्दोलन की मांगो को क्यों नहीं माना या फिर किसी भी प्रकार के समझौता करने का प्रयास क्यों नहीं किया जबकि सरकार में शामिल लोग खुद ये मान रहे थे की अन्ना की मांगे मानी जानी चाहिए (३)यदि अन्ना के इस आन्दोलन में सरकार की मिलीभगत नहीं थी फिर क्यों आन्दोलन की शुरवात से ही जनलोकपाल की मांग करने वाले अन्ना और उनकी पार्टी ने बिना जनलोकपाल पारित कराये आन्दोलन को समाप्त कर दिया. कहने वाले हो सकता हो ये कहें की अन्ना के स्वास्थ की वजह से अन्ना और उनकी पार्टी को ये आन्दोलन बंद करना पड़ा लेकिन सिर्फ स्वास्थ को लेकर आन्दोलन बंद कर देना कोई रास्ता नहीं था यदि सिर्फ अन्ना का गिरता स्वास्थ ही अगर इस आन्दोलन को बंद करने का कारण रहा हो तो अन्ना टीम को चाहिए था की मांग पूरी होने तक क्रमिक रूप से अनशन कर अपना विरोध जताते रहते लेकिन ऐसा नहीं हुआ अलबत्ता सरकार की इस घोषणा के बाद की जनलोकपाल की मांग को उसने संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया है अन्ना और उनकी टीम ने आन्दोलन समाप्त कर दिया. क्या अन्ना टीम ये नहीं जानती है कि संसदीय स्थायी समिति को भेजे गए ज्यादातर मामलो में क्या होता है ?हो सकता हो वो ये कहे की चूकी इस मामले में मतभेद था इसलिए सरकार ने इसे स्थायी समिति के पास भेज दिया. लेकिन आपको याद होना चाहिए की अमेरिकी परमाणु करार के मुद्दे पर सरकार और विपक्ष में ही नहीं बल्कि संप्रग के घटक दलों के बीच भी यहाँ तक मतभेद थे कि बाममोर्चा ने संप्रग सर्कार से अपना समर्थन वापस ले लिया था और स्थिति इतनी गंभीर हो गयी थी की सरकार को शक्ति परीक्षण तक कराना पड़ गया था और कांग्रेस ने खुद की सरकार को भी दाँव पर लगाकर परमाणु करार को सदन में पास कराया था. क्या तब विवाद की स्थिति नहीं थी? क्या तब करार के इस मामले को स्थाई समिति के पास नहीं भेजना चाहिए था . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और सरकार ने परमाणु करार बिल सदन में पास करा लिया फिर जनलोकपाल के मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ क्यों नहीं जनलोकपाल के मुद्दे को तत्काल सदन में निपटाया गया और क्यों नहीं टीम अन्ना ने ये मांग की सरकार तत्काल जनलोकपाल के बिल को पारित कराये.
वास्तव में यह टीम अन्ना और सरकार का मिला जुला खेल लगता है ताकि जनता का ध्यान असल मुद्दे २जी स्पेक्ट्रम से हट जाए और हुआ भी यही और इस काम में सरकार और अन्ना का साथ दिया हमारी मीडिया ने जिसने इस आन्दोलन को इतना हाईलाइट कर दिया की असल मुद्दा जनता के बीच से गायब ही हो गया. लेकिन यह सही है कि सरकार ने इस आन्दोलन को बंद कराने में इतना समय ले लिया की यह आन्दोलन उसके लिए सरदर्द बन गया.
अब अन्ना टीम यू.पी के दौरे पर है यहाँ भी २०१२ में चुनाव होने है अगर यहाँ की मौजूदा बसपा की सरकार चुनाव में हारती है तो यह इस सरकार के कुशासन, लूट, भ्रष्टाचार का परिणाम होगा न की एक मात्र अन्ना टीम का कोई चमत्कार.
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